अभ्युदय
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एकाकी जीवन का अंतिम पड़ाव
कितना कठिन,
कितना दुर्गम,
किसी ने कहा –
मनुष्य अकेला आया है
और अकेला जायेगा,
किसी ने कहा –
मनुष्य स्वतंत्र जन्मा है
परन्तु – सर्वत्र जंजीरों
से जकड़ा हुआ है |
लेकिन –
आने – जाने के बीच,
संसार के रंगमंच पर
जो अभिनय करना पड़ता है,
वह क्या संभव है –
एकाकीपन से ?
वह नाटककार
जो सृजित करता है
पात्रों को,
जिनके इर्द-गिर्द
घूमता है कथानक
क्या सृजित कर सकता है
ऐसी कथावस्तु, जिसमें –
एक ही पात्र हो ?
यदि ऐसा है,
तो –
क्या महत्व है
अभिनय का ?
क्या आधार है –
जीवन का ?
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